Saturday, May 21, 2016

विधिरहित यज्ञ शत्रु के समान है


:--
"अन्नहीनो दहेद् राष्ट्रं मन्त्रहीनश्च ऋत्विजः ।
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।।" (चाणक्य-नीतिः---08.22)
अर्थः----अन्नहीन यज्ञ राष्ट्र कोमन्त्रहीन यज्ञ ऋत्विज् (पुरोहित) को  और दानहीन यज्ञ यजमान को भस्म कर देता है । संसार में (विधिहीन) यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है ।



विमर्शः---यज्ञ कामधेनु हैयज्ञ कल्पवृक्ष हैपरन्तु विधि-विधान से न करने पर यज्ञ शत्रु बन जाता है ।

महाराज दशरथ ने भी कहा था---
"विधिहीनस्य यज्ञस्य कर्त्ता सद्य विनश्यति ।"
(वा. रा. बाल. 8.18)
विधिहीन यज्ञ करने वाला शीघ्र नष्ट हो जाता है ।

श्रीकृष्ण जी कहते हैं----
"विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं प्रचक्षते ।।"
(गीता---17.13)
अर्थः----जो शास्त्रविधि से रहित होजिसमें लोक-कल्याणार्थ अन्नदान न दिया गया होजिसमें वेदमन्त्रों का उच्चारण न किया गया होजिसमें यज्ञ करने वालों को दक्षिणा न दी गई हो और अश्रद्धा से किया गया होऐसे यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ।

ऐसे यज्ञ लाभकारी नहीं है । विधि-विधान से किए हुए यज्ञ इस लोक में मनुष्य को धन-धान्य से सम्पन्न बनाते हैं और अन्त में मोक्ष में पहुँचाते हैं ।

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