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"अन्नहीनो दहेद् राष्ट्रं मन्त्रहीनश्च ऋत्विजः ।
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।।" (चाणक्य-नीतिः---08.22)
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।।" (चाणक्य-नीतिः---08.22)
अर्थः----अन्नहीन यज्ञ
राष्ट्र को, मन्त्रहीन यज्ञ ऋत्विज् (पुरोहित) को और दानहीन यज्ञ
यजमान को भस्म कर देता है । संसार में (विधिहीन) यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है ।
विमर्शः---यज्ञ कामधेनु है, यज्ञ कल्पवृक्ष है, परन्तु विधि-विधान
से न करने पर यज्ञ शत्रु बन जाता है ।
महाराज दशरथ ने भी कहा
था---
"विधिहीनस्य यज्ञस्य कर्त्ता सद्य विनश्यति ।"
(वा. रा. बाल. 8.18)
विधिहीन यज्ञ करने वाला शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
(वा. रा. बाल. 8.18)
विधिहीन यज्ञ करने वाला शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं----
"विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं प्रचक्षते ।।"
(गीता---17.13)
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं प्रचक्षते ।।"
(गीता---17.13)
अर्थः----जो शास्त्रविधि से
रहित हो, जिसमें लोक-कल्याणार्थ अन्नदान न दिया गया हो, जिसमें वेदमन्त्रों का उच्चारण न किया गया हो, जिसमें यज्ञ करने
वालों को दक्षिणा न दी गई हो और अश्रद्धा से किया गया हो, ऐसे यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ।
ऐसे यज्ञ लाभकारी नहीं है ।
विधि-विधान से किए हुए यज्ञ इस लोक में मनुष्य को धन-धान्य से सम्पन्न बनाते हैं
और अन्त में मोक्ष में पहुँचाते हैं ।
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