Saturday, May 21, 2016

रामायण कथा का एक अंश, , जिससे हमे सीख मिलती है "एहसास" की...


श्री रामलक्ष्मण एवम् सीतामैया चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे,
राह बहुत पथरीली और कंटीली थी !
की यकायक श्री राम के चरणों मे कांटा चुभ गया !
श्रीराम रूष्ट या क्रोधित नहीं हुएबल्कि हाथ जोड़कर धरती माता से अनुरोध करने लगे !

बोले- "माँमेरी एक विनम्र प्रार्थना है आपसेक्या आप स्वीकार करेंगी ?"
धरती बोली- "प्रभु प्रार्थना नहींआज्ञा दीजिए !"
प्रभु बोले, "माँमेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज मे इस पथ से गुज़रेतो आप नरम हो जाना !
कुछ पल के लिए अपने आँचल के ये पत्थर और कांटे छुपा लेना !
मुझे कांटा चुभा सो चुभापर मेरे भरत के पाँव मे आघात मत करना"
श्री राम को यूँ व्यग्र देखकर धरा दंग रह गई !
पूछा- "भगवनधृष्टता क्षमा हो ! पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार है ?
जब आप इतनी सहजता से सब सहन कर गएतो क्या कुमार भरत सहन नही कर पाँएगें ?
फिर उनको लेकर आपके चित मे ऐसी व्याकुलता क्यों ?"
श्री राम बोले- "नही...नही मातेआप मेरे कहने का अभिप्राय नही समझीं ! भरत को यदि कांटा चुभातो वह उसके पाँव को नहीउसके हृदय को विदीर्ण कर देगा !"
"हृदय विदीर्ण !! ऐसा क्यों प्रभु ?",
धरती माँ जिज्ञासा भरे स्वर में बोलीं !
"अपनी पीड़ा से नहीं माँबल्कि यह सोचकर कि...इसी कंटीली राह से मेरे भैया राम गुज़रे होंगे और ये शूल उनके पगों मे भी चुभे होंगे !
मैयामेरा भरत कल्पना मे भी मेरी पीड़ा सहन नहीं कर सकताइसलिए उसकी उपस्थिति मे आप कमल पंखुड़ियों सी कोमल बन जाना..!!"
अर्थात
रिश्ते अंदरूनी एहसासआत्मीय अनुभूति के दम पर ही टिकते हैं ।
जहाँ गहरी आत्मीयता नहीवो रिश्ता शायद नही परंतु दिखावा हो सकता है ।
इसीलिए कहा गया है कि...
रिश्ते खून से नहींपरिवार से नही,
मित्रता से नहीव्यवहार से नही,
बल्कि...
सिर्फ और सिर्फ आत्मीय "एहसास" से ही बनते और निर्वहन किए जाते हैं ।
जहाँ एहसास ही नहीं,
आत्मीयता ही नहीं ..
वहाँ अपनापन कहाँ से आएगा l
          
।।जय श्री राम ।।


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